शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

आदिवासियों की जीवन शैली पर आलेख - "स्कूल स्मारक जैसा है" - सुरेन्द्र कांकरिया

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के रूप में टूटने के बावजूद भी मध्य प्रदेश अभी भी आदिवासी बहुल क्षैत्र है और आदिवासी संस्कृति फल फूल रही हैं, उदाहरण बतौर झाबुआ, धार, मंड़ला इत्यादि जिलों में आदिवासी बहुसंख्य है। उन्हीं आदिवासियों की जीवनशैली पर झाबुआ(मध्य प्रदेश) के वरिष्ठ आंचलिक पत्रकार श्री सुरेन्द्र कांकरिया जी ने अपनी लेखनी चलाई है और पत्रिका गुंजन के प्रवेशांक में यह लेख प्रकाशित हुआ है।

आपके लिये अंतरजाल पर सादर प्रस्तुत है, आपके विचार/सुझाव/टिप्पणियाँ हमारा मार्गदर्शन करेंगी।


जीतेन्द्र चौहान मुकेश कुमार तिवारी
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"स्कूल स्मारक जैसा है" - सुरेन्द्र कांकरिया


सम्पूर्ण अबोधता- तमाम इंद्रियों की अबोधता से बोधता की ओर बढ़ती मात्रा का पहला पड़ाव है बचपन। इस पड़ाव के एक ओर ईश्वरीय स्वरूप जैसा निश्छल अबोध लोथड़ा तो दूसरी ओर ईश्वर की तमाम गुत्थियों को खोलने को तत्पर मानव। इनके बीच में नहीं, ईश्वरीय स्वरूप के सर्वाधिक नजदीक व मानव फितरतों से सर्वाधिक दूर बचपन की त्रासदी यह है कि वह दिव्यता से मानवता की ओर सफर करने को अभिशप्त है।
इस पड़ाव पर हर कोई अपनी याददाश्त की पोटली में कुछ रखता जरूर है। यह कुछ रखा हुआ ही सब कुछ चूक जाने के बाद कोहिनूरी आभा वाली धरोहर बन जाता है।
झाबुआ जिले का बचपन कुपोषण की कोख को चूसता हुआ पैदा होता है। हड्डियों के ढाँचे में बीमारियों को लेकर जब वह यहाँ आता है तो सोमवार को उसका जन्म लेना उसे सोमला, मंगलवार को अगर जन्म लिया तो मंगलिया, बुधवार का बुधिया जैसा कुछ बना देता है ।
मुर्गों के, कुत्तों के, गाय के, बच्चों के साथ उसका भी बचपन पग-पग बढ़ता जाता है। गिरना, जलना, काटने आदि के घाव उसे बचपन में ही मिल जाते हैं। इस जिले में बचपन उसे कलम ढखाली खिलाता है। इसे खेलते-खेलते ही वह वृक्ष पर चढ़ना सीख जाता है। जब वृक्ष पर चढ़ता है तो उसे कच्चे आम, कच्चे जाम, जामुन, महुआ का स्वाद भी पता चल जाता है। मुर्गों, कुत्तों के बच्चों के साथ खेलते-खेलते वह जानवरों की हूबहू आवाज निकालना सीख जाता है।
स्वाद व स्वभाव उसे नैसर्गिक रूप से मिलते हैं। यही बचपन उसे मवेशी से जोड़ देता है। मवेशी चराते-चराते उसे वनस्पति का ज्ञान हो जाता है। मवेशी के गुण-दोष, उपयोग से वह अवगत होता है।
स्कूल उसके लिए दूर से देखने वाला स्मारक जैसा कुछ होता है। यही बचपन उसे श्रम का मार्ग बताता है। यही बचपन उसे प्राकृतिक सरलता से साक्षात्कार करवाता है। बचपन उसे घर से निकालकर उस जंगल, खेत, चरागाह तक ले जाता है, जहाँ वह अपने बचपन का उत्सर्जन कर एक वनवासी, एक श्रमिक, एक कृषक बनकर बाहर आता है। आदिवासी के बचपन में यादों की बस यही धरोहर रहती है कि उसने अपना बचपन पिता का फटा शर्ट या बहन के कपड़े पहनकर वन सम्पदा के बीच गुजारा था।
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जीवन ज्योति मेडिकल स्टोर्स,
थांदला, झाबुआ म.प्र.

सुरेन्द्रजी वरिष्ठ आंचलिक पत्रकार हैं, दो पुरस्कार मिल चुके हैं।

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

मेरी पहली कविता - बालकवि बैरागी

हिन्दी के ख्यातनाम साहित्यकार और एक यशस्वी राजनैतिक जीवन को जीने वाले सहृदय गीतकार, कवि जिनकी ओज भरी वाणी ने मंच से लगाकर देश की संसद को शोभित किया श्री बालकवि बैरागी जी ने "गुंजन" को अपने प्रवेशांक पर शुभकामनायें देते हुये अपने संस्मरण हमारे साथ बांटे जो आपके समक्ष प्रस्तुत है :-
" मेरी पहली कविता "
यह घटना उस समय की है जब मैं कक्षा चौथी का विद्यार्थ था। उम्र मेरी नौ वर्ष थी। आजादी आई नहीं थी। दूसरा विश्व युद्ध चl रहा था। मैं मूलत: मनासा नगर का निवासी हूँ, जो उस समय पुरानी होल्कर रियासत का एक चहल पहल भरा कस्बाई गाँव था। गरोठ हमारा जिला मुख्यालय था और इन्दौर राजधानी थी। मनासा में सिर्फ सातवीं तक पढ़ाई होती थी। सातवीं की परीक्षा देने हमें 280 किलोमीटर दूर इन्दौर जाना पड़ता था। स्कूलों में तब प्रार्थना, ड्रिल, खेलकूद और बागवानी की पीरियड अनिवार्य होते थे। लेकिन साथ ही हमारे स्कूल में हर माह एक भाषण प्रतियोगिता भी होती थी।
यह बात सन्‌ 1940 की है । मेरे कक्षा अध्यापक श्री भैरवलाल चतुर्वेदी थे। उनका स्वभाव तीखा और मनोबल मजबूत था। रंग साँवला, वेश धोती-कुरता और स्कूल आते तो ललाट पर कुंकुंम का टीका लगा होता था। हल्की नुकीली मूँछें और सफाचट दाड़ी उनका विशेष श्रृंगार था। मूलत: मेवाड़ (राजस्थान) निवासी होने के कारण वे हिन्दी, मालवी, मेवाड़ी और संस्कृत का उपयोग धड़ल्ले से करते थे। कोई भी हेडमास्टर हो, सही बात पर भिड़ने से नहीं डरते थे।
एक बार भाषण प्रतियोगिता का विषय आया-"व्यायाम'। चौथी कक्षा की तरफ से चतुर्वेदीजी ने मुझे प्रतियोगी बना दिया। साथ ही इस विषय के बारे में काफी समझाइश भी दी। यूँ मेरा जन्म नाम नन्दरामदास बैरागी है। ईश्वर और माता-पिता का दिया सुर बचपन से मेरे पास है। पिताजी के साथ उनके चिकारे (छोटी सारंगी) पर गाता रहता था। मुझे "व्यायाम' की तुक "नन्दराम' से जुड़ती नजर आई। मैंने गुनगुनाया- ""भाई सभी करो व्यायाम""। इसी तरह की कुछ पंक्तियाँ बनाई और अंत में अपने नाम की "छाप' वाली पंक्ति जोड़ी- ""कसरत ऐसा अनुपम गुण है-कहता है नन्दराम-भाई सभी करो व्यायाम''। इन पंक्तियों को गा-गा कर याद कर लिया और जब हिन्दी अध्यापक पं.श्री रामनाथ उपाध्याय को सुनाया तो वे भाव-विभोर हो गए। उन्होंने प्रमाण पत्र दिया- ""यह कविता है। खूब जियो और ऐसा करते रहो।''
अब प्रतियोगिता का दिन आया। हेडमास्टर श्री साकुरिकर महोदय अध्यक्षता कर रहे थे। प्रत्येक प्रतियोगी का नाम चिट निकालकर पुकारा जाता था। चार-पाँच प्रतियोगियों के बाद मेरा नाम आया। मैंने अच्छे सुर में अपनी छंदबद्ध कविता "भाई सभी करो व्‌यायाम'' सुनाना शुरू कर दी। हर पंक्ति पर सभागार हर्षित होकर तालियाँ बजाता रहा और मैं अपनी ही धुन में गाता रहा। मैं अपना स्थान ग्रहण करता तब तक सभागार हर्ष उल्लास और रोमांच से भर चुका था। चतुर्वेदीजी ने मुझे उठाकर हवा में उछाला और कंधों तक उठा लिया।
जब प्रतियोगिता पूरी हुई तो न्यायाधीशों ने अपना निर्णय अध्यक्ष महोदय को सौंप दिया। सन्नाटे के बीच निर्णय घोषित हुआ- हमारी कक्षा हार चुकी थी। कक्षा 6ठी जीत गई। इधर चतुर्वेदीजी साक्षात परशुराम बन कर न्यायाधीशों से सामने अड़ गए। वे भयंकर क्रोध में थे और उनका यही एक मत था कि उनकी कक्षा ही विजेता है। कुछ शांति होने पर बताया गया कि यह भाषण प्रतियोगिता थी, जबकि चौथी कक्षा के प्रतियोगी नन्दरामदास ने कविता पढ़ी है- भाषण नहीं दिया है। कुछ तनाव कम हुआ। इधर अध्यक्षजी खड़े हुए और घोषणा की - "कक्षा चौथी को विशेष प्रतिभा पुरस्कार मैं स्कूल की तरफ से देता हूँ। नन्दरामदास को पाँच रूपए की पुस्तकें सरकार की तरफ से दी जाएंगी। '' सभागार फिर तालियों से गूंज उठा। चतुर्वेदीजी पुलकित थे और रामनाथजी आँखें पोंछ रहे थे। यह सरस्वती माता के घुँघरूओं की मेरे जीवन में पहली सार्वजनिक झँकार थी।
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धापूधाम, 165 डॉ।पुखराज वर्मा मार्ग,, नीमच
मो.: 9425106136

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

पत्रिका-गुंजन का प्रवेशांक

प्रिय ब्लॉगर्स मित्रों,
मैं, "पत्रिका गुंजन" ब्लॉग की पहली पोस्ट देते हुये अतीव उत्साह से भरा हुआ महसूस कर रहा हूँ । आशा है कि आपका समर्थन हमारे इरादों को मजबूती और जोश प्रदान कर उत्साहवर्धन करेगा।
मुझे यह आप सबसे बाँटते हुये बड़ी खुशी हो रही है कि, मेरे कवि मित्र श्री जीतेन्द्र चौहान अपनी धुन के पक्के, मज़बूत इरादे वाले और ज़मीन से जुड़े हुये इंसान है । श्री जीतेन्द्र ने अपने दो काव्य संग्रह " पुरखों के बीच " और " टाँड से आवाज " के बाद यह निश्चय लिया की एक साहित्यिक पत्रिका को आकार देना है जो प्रिंट माध्यम और अंतरजाल के बीच सेतु की तरह कार्य कर सके।
करीब छः माह के प्रयासों ( इस अवधि में संसाधनों के प्रबंधन से लगाकर अभिकल्पना को मूर्त रूप देने तक शामिल है ) के पश्चात वह दिन आया कि "गुंजन" अपने प्रवेशांक के साथ तैयार है।
प्रवेशांक के आकर्षण हैं :-
(१) कहानी : (१) सुश्री साधना श्रीवास्तव
(२) कवितायें : (१) श्री निर्मल शर्मा (२) श्री अजीत चौधरी (३) श्री बहादुर पटेल (४) डॉ। राजेश दीक्षित ’नीरव’ (५) सुश्री रंजना फतेपुरकर (६) श्री देवेन्द्र कुमार मिश्रा (७) श्री चाँद शेरी (८) डॉ। सोनाली निर्गुन्दे (९) मुकेश कुमार तिवारी
(३) साक्षात्कार : (१) श्री सदाशिव कौतुक (साहित्यकार), सुश्री ममता बड़जात्या (फिजियो)
(४)आलेख : (१) श्री सुभाष रानाड़े (२) सुश्री जया जादवानी (३) श्री निर्मल शर्मा (४) श्री प्रदीप मिश्रा (५) श्री ओम द्विवेदी (६) श्री मोहन सिँह सिसौदिया (७) श्री सुनील (८) श्री सुधीर सोमानी, (९) श्री आनंद विजय पगारे (१०) श्री विनायक राजहंस (११) श्री कपिल पंचोली (१२)
(५) व्यंग्य : श्री दिलीप चिंचालकर
(६) समीक्षायें : (१) श्री सदाशिव कौतुक (२) रफि़क विसाल (३) शिखा त्रिवेदी (४) श्री मनोज पांचाल (५) श्री देवेन्द्र रिणवा
आगामी दिनों में पत्रिका-गुंजन के प्रवेशांक में समाहित सभी आलेखों को ब्लॉग के माध्यम से आप तक पहुँचाया जायेगा।
आपका समर्थन और सहयोग के आकांक्षी

जीतेन्द्र चौहान मुकेश कुमार तिवारी