मंगलवार, 3 नवंबर 2009

श्री निर्मल शर्मा की चुनिंदा कवितायें

श्री निर्मल शर्मा, इन्दौर निवासी एक स्थापित साहित्यकार उनकी चुनिंदा रचनायें जो कि पत्रिका गुंजन के प्रवेशांक में प्रकाशित हुई हैं अब आपके समक्ष प्रस्तुत है।


जीतेन्द्र चौहान मुकेश कुमार तिवारी
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चिड़िया आई, चिड़िया आई

चिड़िया आई, चिड़िया आई
अम्बुआ की डाली बौराई
डाल-डाल पर बैठी चिड़िया
रंग बिरंगी प्यारी चिड़िया
पानी में करती किल्लोल
सपनों की चादर ले आई
चिड़िया आई, चिड़िया आई
फसल कट गई खेत तप रहे
खलिहानों में ढपली के स्वर
लाल रंग पर काली कलंगी
कुमकुमी ऋतु गदराई
चिड़िया आई, चिड़िया आई
कोयल कुहुक रही वृक्षों पर
बन पाखी उड़ते अंबर में
आल्हा गाए उल्लसित मन
धरती ने फिर ली अंगड़ाई
चिड़िया आई, चिड़िया आई
इमली खिरनी शहतूत लदे
टहनियों पर यौवन गदराया
छाती फूली हर किसान की
फसलों की दुनिया हरियाई
चिड़िया आई, चिड़िया आई
अम्बुआ की डाली बौराई।
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हरी कोंपलों का गीत

झरते
पीले पत्तों में ही
कोमल / हरी
कोंपलों का गीत
छुपा होता है।
पंछी शायद
इसी आशा में
पतझर को कोसते नहीं
उसे गुजर जाने देते हैं
आकाश
परिंदों से भर जाता है
और शामें
सुहानी हो उठती हैं ।
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कुहासा
पथरा गया
समंदर की
नीली आँखों में तैरता हिमखंड
अँधेरा
और गहरा हो गया।
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वर्षा
पर्वत शिखरों पर
कुलांचे भरते
मृग छौने
रीती नदी में
गिर कर पिघल जाते हैं
भर जाती है
रीती नदी की गोद ।
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पहचान
धरती में
बहुत गहरे तक
जा समाया जल
हमारी
थाह नाप रहा है
कि कहीं हमारी
काठी महज
काठी ही तो
नहीं रह गई है।
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शिनाख्त
एक दूसरे के भीतर
धँस कर
रहते हुए भी
संदेह हमारा
स्वभाव बन गया है
और हम
खोजते रहते हैं
कोई सुराग।
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खेल
नीला पड़ गया
विषधर से खेलने वाला सपेरा
रात्रि
निरापद नहीं है ।
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संधान
उठो धनुर्धर
अब न कुरूक्षेत्र प्रकट है
न कौरव और
न ही शकुनि
तुम्हें
स्वयं ही प्राप्त करना होगा
अपना हस्तिनापुर ।
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रविवार, 20 सितंबर 2009

श्री निर्मल शर्मा का :- सनेह का मारग नहीं -"रचना प्रक्रिया"

हिन्दी के स्थापित साहित्यकार श्री निर्मल शर्मा साहब ने पत्रिका-गुंजन के प्रवेशांक में अपनी रचना प्रक्रिया को हमारे साथ बाँटा जो आपके लिये प्रस्तुत है। आपकी प्रतिक्रियायें हमारा मार्गदर्शन करती हैं।

सविनय,


जीतेन्द्र चौहान मुकेश कुमार तिवारी
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मैं कुछ भी नहीं लिखता। जो भी लिखता हूँ उसे लंबे समय तक मुल्तवी किये रहता हूँ। उसे आप मेरी "रचना प्रक्रिया' का हिस्सा भी समझ सकते हैं। क्योंकि जब तक विचार परिपक्व हो कर मूर्तन रूप ग्रहण करने के लिये स्वयं को तैयार न कर ले "रचना प्रक्रिया' प्रारंभ ही नहीं हो सकती। छवि, घटना, विचार, आलोड़न, विलोड़न से ही निकलता (या कह लूँ- निथरता) रचना का नवनीत। जब इस नवनीत को लेकर मैं रचना बनाना शुरू करता हूँ, तब मेरे समक्ष उसके "सामाजिक दाय' का प्रश्न उपस्थित होता है।

क्योंकि मेरा यह दृढ़ मत है कि कोई भी रचना व्यर्थ अथवा निरर्थक नहीं होती। हर रचना का कोई हेतु अवश्य ही होता है। वह अहेतुक नहीं होती उसका कोई न कोई कन्सर्न अवश्य होता है। पाठक क्षमा करें, हम रघुनाथ गाथा भी अपनी खुशी के लिये नहीं लिखते! इसे और विस्तार से समझाने के लिये मैं ग.मा. मुक्तिबोध के चर्चित व मशहूर आर्टिकल - तीसरा क्षण का अवलंब लेना चाहूंगा। वहाँ पहले क्षण में रचनाकार के समक्ष कोई वाकिया अथवा घटना होती है जो उसके रचनाकार मस्तिष्क को "हॉण्ट' करती रहती है।

घटनाएँ अथवा वाकिये तो अनेक होते हैं। होते रहते हैं, पर हर घटना रचना की प्रेरणा नहीं बनती। हर वाकिया मस्तिष्क को उद्वेलित नहीं करता। और इसका निर्णय होता है दूसरे क्षण में जाकर । यहाँ कसौटी विचार होता हैऔर घटना में रचना बन पाने का सामर्थ्य है अथवा नहीं। है तो कितनी है....। आदि धाराएँ टकराती रहती हैं। तब कहीं जा कर पहला क्षण, उसमें घटित घटना का निर्णय हो पाता है।
तब तीसरे क्षण "रचना' की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। ताना बाना बुना जाने लगता है। बिम्ब, प्रतीक, भाषा, विचार और अन्तत: सामाजिक निष्कर्ष पर उसकी सार्थकता व निरर्थकता के मान मूल्य तय होते हैं। मुक्तिबोध रचना व रचनाकार की "राजनीति' से भी गुरेज नहीं करते । वे कहते हैं- तय करो कि किस ओर हो तुम। पार्टनर, तुम्हें अपनी पॉलिटिक्स तो तय करना होगी।

और यहीं, इसी बिन्दु पर पहुँच कर रचना का सामाजिक सरोकार व दाय के मुद्दे तय होते हैं। हर रचना का अपना "पक्ष' होता है। कोई रचना "निष्पक्ष' नहीं होती । निष्पक्षता का दावा सबसे अधिक भ्रामक है। वह व्यक्ति को कहीं का नहीं छोड़ता। और यहीं से रचना में प्रतिबद्धता की कसौटी निर्णायक बन जाती है। यह विवेक बलवान हो उठता है कि पीड़ित मानवता के पक्ष में विजय के अंतिम क्षणों तक संघर्ष रत रहना ही- रचना व रचनाकार का मुख्य सरोकार है। मेरे लिये तो "रचना प्रक्रिया' के मायने यही हैं।
माँ मेरी प्रिय पात्र रही है। स्थायी कमजोरी। सदैव एक शोषित पीड़ित, दमित पक्ष। वैसे भी नारी ही इस वर्ग का सबसे सशक्त सिम्बल है। महत्वपूर्ण प्रतीक। "पिता' मुझे इतना प्रभावित व प्रेरित कभी नहीं कर पाए, बल्कि उनसे मैंने सदैव ही किनारा किया है। आतंक व पीड़ा से लबरेज वे सदैव मुझमें डर तथा नफरत भरते हैं।

ये दो प्रतीक मैंने अपने रचना संसार से डिस्कशन्स के लिये अपनी रचना प्रक्रिया पर रोशनी डालने के लिये आपके समक्ष उठाए हैं। मेरी सबसे लंबी, चर्चित व मशहूर कविता थी- "माँ के लिये' । व्यक्तिगत होने के उपरान्त यह प्रतीक कविता में सार्वजनीन होकर उभरा है। सर्वग्राह्य भी वह रहा और पाठकों ने उसे हाथों हाथ व सर आँखों पर लिया। कविता खूब प्रसिद्ध हुई। उसके खूब अनुवाद भी हुए।
इसके उलट "पिता को भद्दी गालियाँ बकते हुए' कविता के साथ पाठकों ने कोई रियायत नहीं बख्शी व उसे सीधे साधे उठाकर "अकविता' के खाते में पटक दिया। हालाँकि उसके बिम्ब प्रतीक व भाषा आदि ने भी पाठकों को ऐसा करने के लिये उकसाया। यद्यपि अपनी परिणति में भी कविता कुछ ऐसा ही प्रभाव छोड़ती भी है।

मैंने बहुविध लिखा है। विभिन्न विषयों पर कई-कई तरह से लिखा है। किंतु यह विविधता कन्टेन्ट को लेकर भी रही तो फॉर्म को लेकर भी। वस्तु और रूप की ये अर्थ छवियाँ मेरी कविताओं को अपने समकालीनों के साथ भी खड़ा करती है व उनसे अलग भी पहचान बनाती है। मैंने कभी किसी विषय पर लिखने से परहेज नहीं किया। धर्म, राजनीति, विज्ञान और संघर्षा के साथ ही प्रेम तथा वात्सल्य को भी अपनी कविताओं में लिया उनके कन्सर्न को कभी ओझल व विस्मृत नहीं होने दिया।
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डी-10, योजना क्र। 98
(2, संवाद नगर के सामने)
नवलखा, इन्दौर 452 001

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

पत्रिका-गुंजन : अपनी नियति को पाने का संघर्ष- हरमन हेस्से_सुश्री जया जादवानी

पत्रिका गुंजन ने अपने प्रवेशांक में ख्यात कवियत्रि सुश्री जय जादवानी जी का आलेख जुटाया है और उन्होंने अच्छी किता़बों पर लिखा है, आप भी पढिये और अपनी राय से हमें अवगत कराईये।

जीतेन्द्र चौहान मुकेश कुमार तिवारी

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अपनी नियति को पाने का संघर्ष- हरमन हेस्से_सुश्री जया जादवानी

अच्छी किताबें वही हैं जो हमारे हृदय को करूणा, प्रेम और एक रहस्यमय अनुभूति से भर दें। जिसे हम पाना चाहते हैं वह कहीं आसपास है। एक अमूर्त सी अर्थ की देह, जो जितनी मायावी लगती है, उतनी वास्तविक भी। जीवन के सर्वश्रेष्ठ पल वही होते हैं जब हम किसी क्षण तीव्र चाह से भर उठते हैं कि हम मर जाएँ और फिर वही लम्हा हम अपनी राख से जी उठते हैं।
दर असल हमारी आत्मा अपनी ही प्यास को अपनी देह की कोटर में दबाए किसी पंछी की भाँति दुबकी बैठी है- बाहर ठंड है हवा है और बारिश। क्या उसे यकीन है कि इस खोज में उसे स्वयं नहीं जाना पड़ेगा। जिसे वह खोज रही है, वही आएगा और सबसे बड़ी बात क्या वह जानती है, वह क्या खोज रही है?
कहानी शुरू होती है- सिनक्लेयर के अबोध बचपन की एक मासूम गलती से ...। जिसकी यातना से उसे निजात दिलवाता है मैक्स डेमियान। यही दरअसल उपन्यास का नायक भी है और इन दोनों की दोस्ती.. मिलना-बिछड़ना। एक व्यक्ति की रहस्यमयी यात्रा का विकास क्रम भी है। दुनिया में अगर कुछ खोजने जैसा है तो वह है अपनी खोज और आसान नहीं है यह। बहुत से अँधेरे उजले रास्तों से होते हुए हम कभी जान नहीं पाते कि इसमें नियति का हाथ है या हमारा। कभी लगता है, कोई हमीं में है, जो सब जानता है और हमें रास्ता दिखा रहा है। कभी अकेलापन और भटकाव लगता है।
डेमियान सिनक्लेयर को उसकी और अपनी रहस्यमय यात्रा में ले जाता है। अपने भीतर छिपी शक्तियों से कैसे साक्षात्कार कर उन्हें जगाना, अपने से बाहर लाना-
"दृष्टि और विचारों से व्यक्ति बहुत कुछ कर सकता है।'
यह छोटे -छोटे प्रयोग स्कूल में चलते हैं, फिर वे अलग-अलग भटकन और फिसलन भरे रास्तों पर चले जाते हैं। सिनक्लेयर और कुछ उस जैसे दोस्त - जिन्हें सिर्फ इतना ही पता है कि वे कुछ ढूँढ रहे हैं, जाने बिना कि क्या ? जिन्हें जो कुछ भी नया मिला है, अपनी सनक और जुनून की वजह से मिला है।
किस तरंग में वह जा रहा है, कहाँ से निर्देश आ रहे हैं, ये ऐसी बातें हैं जो व्यक्ति के चुनाव से परे हैं। इस सफर में उसे मिलता है, पिश्टोरियस- गुरूय पादरी। जो इस विश्व का अंत और नये विश्व का प्रारंभ देखता है। ये दोनों संकेतों और सपनों के सहारे नियति के बीहड़ मैदान में अपना पथ ढूँढते हैं। खुद से दुबारा पैदा होना एक वेदनामयी प्रक्रिया है।
पंछी अंडे से निकलने के लिये संघर्ष कर रहा है। अंडा विश्व है जिसे जन्म लेना है, उसे एक विश्व को नष्ट करना होगा। पक्षी ईश्वर के पास जा रहा है। ईश्वर का नाम है- अब्राक्सस। जिसमें ईश्वर और शैतान दोनों समाहित हैं।
दरअसल इन कुछ लोगों का उद्देश्य था- नया धर्म, नया ईश्वर, जिसे अब्राक्सस कहकर पुकारते थे वे। नया समुदाय, नयी पूजा पद्धतियाँ, उल्लास, उत्सव, रहस्य। यहाँ न पाप है, न घृणा, न नैतिकता, न अपनी प्रवृत्तियों और प्रलोभनों से पलायन।
जब आप किसी व्यक्ति से घृणा करते हैं तो दरअसल आप उसमें किसी ऐसी चीज से घृणा कर रहे होते हैं, जो आपके अपनी ही अंदर है।
जब तक ज्ञान की किरण मनुष्य पर नहीं पड़ती, तब तक वह मछली या भेड़ है, कीड़े या जोंक है, चींटियाँ या मधुमक्खियाँ हैं। सड़क पर चलता हुआ हर दोपाया मनुष्य नही माना जाएगा, सिर्फ इसलिये कि वह सीधा चलता है और संतान को नौ महीने पेट में रखता है।
मनुष्य अपनी क्षमता की जड़ों से संबंधित होकर ही अपने को खोज और अपना विकास कर सकता है। पर लोग डर जाते हैं। उन्हें अपनी क्षमताओं पर विश्वास नहीं होता।
सिनक्लेयर अपनी उम्र के अठारहवें बरस में था और स्वाभाविक रूप से प्रेम की तलाश में था। वह सपने में देखता कि अपने घर में प्रवेश कर जिसे गले लगा रहा है वह है एक विशाल काया जिसका आधा शरीर पुरूष का था, आधा स्त्री का और इस सपने की बाबद वह किसी को न बता पाता। सिनक्लेयर ने अपनी दीवानगी में जो तस्वीर बनायी थी, वह उसी से सवाल पूछता, उसे कोसता, माँ मानता, प्रार्थना करता, प्रेमिका मानता, रंडी और वेश्या भी मानता, अब्राक्सस मानता।
बेयाटिस की जिस प्रतिमा ने उसे अँधेरे - बदबू भरे रास्तों की सड़न से ऊपर उठाकर उजाले की धरती पर ला खड़ा किया था- उसका मिलना अकस्मात लगते हुए भी अकस्मात नहीं था। यह मनुष्य के भीतर छिपी जिजीविषा दृढ़ इच्‌छा शक्ति की प्रतीक है कि वह हमेशा बुराइयों को पछाड़ता हुआ खुद को ईश्वरत्व के समीप और समीप लाना चाहता है। दरअसल हमारी इच्छाशक्ति ही हमसे आजाद हो, ऐसे मायाजाल रचती है जो हमारे भटके पैरों को रास्ता देते हैं।
और फिर उपन्यास का आखिरी और महत्वपूर्ण मोड़- स्कूल के दिन खत्म करके सिनक्लेयर वापस आया और इत्तफाक से उसकी मुलाकात डेमियान से हो गई, जो इत्तफाक नहीं था। प्रकृति में कुछ भी इत्तफाक नहीं होता। आखिर नियति ने सिनक्लेयर को डेमियान की माँ के सामने खड़ा कर दिया- जिसकी तस्वीर से वह बेइंतहा मोहब्बत करता। अपने बेटे से मिलते-जुलते चेहरे वाली, समय से परे, उम्र से परे, अंदरूनी शक्ति से भरी वह सिनक्लेयर से कहती है-
"जन्म लेना हमेशा मुश्किल होता है। आप जानते हैं कि पक्षी को अंडे से निकलने के लिये कितना कष्ट उठाना पड़ता है।'
ये हैं फ्राक एवा, नियति की तरह अकाट्य । हर चीज की जानी जानन पर और इसके बाद सिनक्लेयर ने अपने सपने को पहचान लिया। कभी -कभी वह अपराध बोध से ग्रसित हो उठता। एवा उसे अपने सपने पर यकीन करने के लिये प्रेरित करती। वह उसके असंतोष और चाह की पीड़ा को महसूस करती। वे कहती हैं-
अकेलेपन और अपने अस्तित्व से जंग लड़ रहे सिनक्लेयर को यहाँ आकर काफी सुकून मिलता है, जैसे अपनी सही जगह पर आ गया हो। वह फ्राक एवा और डेमियान के रहस्यमय संसार का हिस्सा होने ही लगता है कि युद्ध छिड़ जाता है। दोनों को जाना पड़ता है। फ्राक एवा वहीं रहती है।
तमाम लौकिक कथाओं के बीच यह कुछ अलौकिक सी कथा है,जो समाज के नैतिक मूल्यों की धज्जियाँ उड़ाती हुई मानव के लिये अपना धर्म खुद रचने का आव्हान करती है। प्रेम अरूप होकर भी अपने शिखर पर होता है। यह मनुष्य के भीतर बसे उस संसार की कहानी है, जिसे खोजने तो कई निकलते हैं पर पहुँच कुछ एक ही पाते हैं।
अंत में युद्ध में जख्मी वह अस्पताल में पड़ा है। बगल के बिस्तर पर उसे डेमियान दिखता है, जो उसे कहता है- अब तक हर मुश्किल में तुमने मुझे याद किया है, अब मैं नहीं आऊँगा। अब तुम्हें अपने ही भीतर आवाज देनी होगी।
और फिर वह उसे वह चुम्बन देता है, जो उसे उसकी माँ फ्राक एवा ने दिया था, सिनक्लेयर के लिये कि जब वह तकलीफ में हो उसे दे देना।
यहाँ प्रेम अपने महानतम स्वरूप में है- ऐसा कहना भी सही नहीं। वह बस है- उतना ही पवित्र, उतना ही ऊँचा जितना आसमान पर दिखता तारा। तुम्हें अगर खुद पर यकीन हो तो जरूर छलांग लगा लेना, वह मिलेगा।
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बी-136, वीआईपी स्टेट,
विधानसभा मार्ग,
रायपुर (छग)
मो.: 9827947480

वरिष्‍ठ कवयित्री जयाजी की नौ किताबें आ चुकी हैं, इन दिनों रायपुर में रहती हैं।

सोमवार, 24 अगस्त 2009

धरती कह रही है : तुम मुझे बचाओ, मैं तुम्हें बचाऊँ

सम्माननीय पाठक वृन्द,


पत्रिका गुंजन के प्रवेशांक की एक और प्रविष्टी आपके के समक्ष प्रस्तुत करते हुये बड़ा हर्ष हो रहा है। आशा है कि आप अपने अमूल्य विचारों और प्रतिक्रियाओं से हमें और बेहतर करने की प्रेरणा देते रहेंगे।

प्रस्तुत आलेख के लेखक श्री सुभाष रानाड़े है जो कि इन्दौर(म।प्र।) से प्रकाशित सांध्य दैनिक के संपादक हैं।


सविनय,


जीतेन्द्र चौहान मुकेश कुमार तिवारी

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धरती कह रही है : तुम मुझे बचाओ, मैं तुम्हें बचाऊँ
श्री सुभाष रानाडे




लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पहले धरती अस्तित्व में आई थी। तब से आज तक इसमें न जाने कितने आंधियाँ आई, ज्वालामुखी विस्फोट हुए और भूकंप आए। प्रकृति के कोप से निपटने के लिये धरती माता ने खुद को बहुत मजबूती से थामे रखा, ताकि हम उसकी गोद में आराम से अपना जीवन बिता सकें। मगर अब धरती माँ अपनी ही संतान यानी मानव की करतूतों से हैरान-परेशान है। वह समझ नहीं पा रही है कि मानव के अत्याचार का सामना किस प्रकार करें। प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की ललक के चलते मनुष्य न सिर्फ धरती को तबाह कर रहा है, बल्कि खुद ही अपनी बर्बादी का रास्ता भी तैयार कर रहा है। नतीजा ग्लोबल वार्मिंग के खतरे के रूप में सामने आ रहा है।
धरती के तापमान में औसतन वृद्धि को ही ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। चूँकि धरती का तापमान बढ़ रहा है, इसलिए वर्षा भी अपने समय के मुताबिक नहीं होती, बल्कि समुद्र का जलस्तर भी निरंतर बढ़ रहा है। यही वजह है कि वनस्पति व जीव-जगत के ऊपर कई प्रकार के खतरे मँडराने लगे हैं। मौसम विज्ञानियों की राय है है कि ग्रीन हाऊस इफेक्ट और ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम में लगातार बदलाव हो रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को यदि गंभीरता से नहीं लिया गया तो सामाजिक-आर्थिक मामलों में लगातार प्रगति कर रहा हमारा एशिया दशकों पीछे चल रहा है।
वैसे ग्लोबल वार्मिंग के चलते न केवल ग्लेशियर पिघल रहे हैं, बल्कि समुद्र का जलस्तर भी बढ़ता जा रहा है। कभी सुनामी , तो कभी अतिवर्षा या अवर्षा के कारण खेती और फसलों की पैदावार प्रभावित हो रही है। अब सवाल यह है कि अगर अनाज पैदा नहीं हुआ तो हम खाएंगे क्या ? और अगर खाएंगे ही नहीं तो जियेंगे कैसे ? यानी ग्लोबल वार्मिंग का सवाल हमारे जीवन मरण से जुड़ा हुआ है।
हम अपनी राजमर्रा की जिंदगी में कुछ बातें ध्यान में रखें तो च वार्मिंग की समस्या से मुकाबला कर सकते हैं। जैसे-
1. लट्टू(रेग्यूलर बल्ब) की जगह फ्ल्यूरोसेंट बल्ब(सी.एफ.एल.) का इस्तेमाल।
2. ईंधन और ऊर्जा की बचत ।
3. ऐसी चीजों का इस्तेमाल कम करना जिससे पर्यावरण प्रदूषित होता है मसलन प्लास्टिक की थैलियाँ और अन्य सामान जिनका कि जैव-रासायनिक अपघटन (बॉयोकेमिक डीकॉम्पोजिशन) नही हो पाता हो।
4. पौधारोपण कर घर के आसपास के वातावरण को हरा-भरा रखना ।
5. बिजली, कोयला आदि की बजाय ऊर्जा के गैर पारंपरिक स्त्रोतों का इस्तेमाल जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि।
6. पेट्रोल के इस्तेमाल पर नियंत्रण कर इथेनाल और बायो फ्यूल को बढ़ावा देना।
धरती की आस अभी भी बाकी है। उसे विश्वास है कि उसकी संताने अपनी गलतियों को सुधारेगीं। मनुष्यों को तरह तरह के संकेतों (जैसे पोलर आइस कैप का पिघलना, सुनामी, ग्लोबल वार्मिंग) के माध्यम से समझा रही कि अगर तुम्हें अपना अस्तित्व बचाना है तो मेरे अस्तित्व का ध्यान रखना होगा। यानी कि अगर उनका फार्मूला बहुत स्पष्ट है- तुम मुझे बचाओ, मैं तुम्हें बचाऊँ और अगर ऐसा नहीं हो पाया तो ? फिर तो वह दिन दूर नहीं जब संसार में भयंकर तबाही होगी।
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202, सुंदरम, 134, धनवंतरि नगर
इन्दौर 452 012
सुभाष जी 6 पीएम (सांध्य दैनिक, इन्दौर) के संपादक हैं।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

पत्रिका गुंजन - गर्मियों का मौसम- लेखक दिलीप चिंचालकर


गौरेया के पापा का किस्सा है। गर्मियों का मौसम था और वे इंग्लैण्ड की सैर कर रहे थे। योरप में ये दिन होते ही हैं बड़े मजे के। वसंत ऋतु में तरह-तरह के फूल खिलते हैं और जैसे-जैसे मौसम गर्म होने लगता है उनकी फलियाँ बनकर बीज पड़ने लगते हैं। पक्षी-गिलहरी और दूसरे छोटे जानवरों की बन आती है। खाने की इफरात होती हैऔर वे यहाँ-वहाँ इतराते फिरते हैं। खाने से ज्यादा बिखेरते हैं क्योंकि हवा ही कुछ पगला देने वाली रहती है।
ऐसे में पशु-पक्षी क्या, मनुष्य भी बौरा जाता है। गौरय्या के पापा भी जिनका नाम नहीं दे रहे हैं क्योंकि इसमें उनकी भद्द पिट सकती है।, सड़क चलते उटपटांग हरकते करने लगे। वे जिस फुटपाथ पर चल रहे थे उस पर एक दुकान थी जिसका नाम था "मंकी बिजिनेस'।
किस्से का अगला हिस्सा उस जगह का है जहाँ कभी चार्ल्स डार्विन रहता था। यह वही वैज्ञानिक है जिसने बंदर को मनुष्य का पूर्वज होने की बात बताई थी। इस साल उसके जन्म को दो सौ वर्ष हो रहे हैं। आज की तरह तब भी इस बात को लेकर लोगों ने काफी ठिठौली की थी।
तुम पूछोगे कि कुछ बंदर अब इंसान हो गए हैं और कुछ बंदर अभी बंदर क्यों हैं? तो सच यह है कि हर इंसान के अंदर एक बंदर बसता है, फिर वह जिंदादिल हो या खब्ती। तभी तो मंकी नाम पढ़ते ही एक भला दिखने वाला मानुष भी हाथ-पैर नचाने लगा। जब बंदर बाहर नहीं निकल सकता तो मनुष्य खब्ती हो जाता है।
सच पूछो तो वह तख्ती जो डार्विन के लंदन वाले घर के बहार लगी है, छोटी करके हर खुशमिजाज व्यक्ति की कमीज या ब्लाउज पर लग सकती है। यानी डार्विन हरेक के भीतर है और वहाँ बैठे बंदर को उकसा रहा है। बस बड़ों को बुरा न लगे इसलिए कहा जाता है कि हरेक के अंदर एक बच्चा होता है, भला बच्चों और बंदरों में कोई फर्क होता है ?


"गौरय्या कुंज'
वी-4, संवाद नगर, नौलक्खा
इन्दौर 452 001

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

सविता बजाज का एक संस्मरण - साढ़े एक बजा है

पत्रिका गुंजन के प्रवेशांक में तृतीय प्रविष्टी के रूप में फिल्म और टी. व्ही. जगत की मशहूर अभिनेत्री सुश्री सविता बजाज ने अपने बालपन के संस्मरण को हमारे साथ बांटा है। यह संस्मरण आपके लिये प्रस्तुत है, आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का इंतजार रहेगा।

सविनय

जीतेन्द्र चौहान मुकेश कुमार तिवारी
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साढ़े एक बजा है - सविता बजाज

बात उन दिनों की है जब मैं छोटी थी। करीब सात-आठ साल की। हम लोग पुरानी दिल्ली में रहते थे। हमारा परिवार आर्य समाजी था। लिहाजा हर शनिवार घर में हवन होता था । जिसे मेरी माँ घर के अन्य सदस्यों और अपनी सहेलियों के साथ करती थी। हमारे घर में एक बड़ी सी घड़ी थी जो दीवार पर टंगी थी। घर के हर सदस्य के पास समय की कमी थी। घर में सबसे छोटी होने के नाते घर के छोटे-मोटे काम मुझे ही निपटाने पड़ते। सुबह होते ही सबकी नजरें दीवार पर टंगी घड़ी पर टिक सी जाती । उस जमाने में फ्रिज नहीं थे। माँ आवाज लगाती- "सवि, जल्दी जा, बरफ ला दे, तेरे बाबूजी के लिए लस्सी बनानी है, दस मिनट से ज्‌यादा समय मत लेना, समझी।' बाबूजी की आवाज कानों में रस घोलती- "सवि बेटा, जरा मेरे लिए शेव का पानी गरम तो कर दे। उस जमाने में न गैस थी और न ही हीटर, चूल्हा सुलगाना पड़ता था। जिसके धुएँ में मेरा बुरा हाल हो जाता था। मेरा बड़ा भाई चिल्लाता, सवि, तू अभी तक माझा नहीं लाई, पतंग कैसे उड़ाएंगे। और मैं पतंग उड़ाने की लालसा में तितली बन उड़ जाती। बाजार से माझा लाने। कभी-कभी सोचती, दीवार पर लगी घड़ी पर नजरें गड़ाने से तो अच्छा है मेरी कलाई पर भी एक सुन्दर सी, छोटी सी घड़ी बंधी हो। माँ को अपने मन की इच्छा बताई तो वह बोली सवि, तू अभी बहुत छोटी है। तुझे घड़ी देखना तो आता नहीं, बड़ी हो जा,ले दूंगी। लेकिन मेरी जिद के सामने माँ की एक न चली।
एक दिन माँ ने मुझे एक बहुत ही सुन्दर सुनहरी घड़ी मेरे हाथ की कलाई पर बांध मुझे चूम लिया, बोली- हेप्पी बर्थ डे। और मैं खुशी से रो दी।
एक शनिवार घर में बहुत बड़ी पार्टी थी। माँ ने मुझे पुकारा, सवि बेटा, जरा टाइम तो बता। मैं चहकी- साढ़े एक बजा है माँ। मेहमान हंस के लोट पोट हो रहे थे और माँ चुप थी। मुझे तो बस रोना ही आ गया क्योंकि सब मुझ पर हंस रहे थे।
पार्ट खत्म हुई तो माँ ने मुझे पुचकारा- कहा था न, तुझे अभी टाइम देखना नहीं आता, ला घड़ी मुझे दे दे। जब इसकी समझ आ जाएगी ले लेना। सचमुच माँ ने वह घड़ी मुझे तब लौटाई जब समय पढ़ने का ज्ञान हुआ। बस तभी से माँ की बात गांठ बांध ली - किसी चीज का कुछ उपयोग नहीं जब तक उसका ज्ञान नहीं ।माँ को गुजरे बरसों हो गए, लेकिन उसकी कही बात में आज तक नहीं भूली। तभी तो हमारे बड़े-बूढ़े कहते थे न ज्ञान बिना जग सूना।
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सविताजी दिल्ली से हैं, एन. एस. डी. भी गई हैं। लंबे समय से मुंबई में है। पत्रकारिता, फिल्मकारिता, टी. व्ही. सीरियलों में वे अब भी ढलती उम्र में सक्रिय हैं, पूर्ववत।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

आदिवासियों की जीवन शैली पर आलेख - "स्कूल स्मारक जैसा है" - सुरेन्द्र कांकरिया

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के रूप में टूटने के बावजूद भी मध्य प्रदेश अभी भी आदिवासी बहुल क्षैत्र है और आदिवासी संस्कृति फल फूल रही हैं, उदाहरण बतौर झाबुआ, धार, मंड़ला इत्यादि जिलों में आदिवासी बहुसंख्य है। उन्हीं आदिवासियों की जीवनशैली पर झाबुआ(मध्य प्रदेश) के वरिष्ठ आंचलिक पत्रकार श्री सुरेन्द्र कांकरिया जी ने अपनी लेखनी चलाई है और पत्रिका गुंजन के प्रवेशांक में यह लेख प्रकाशित हुआ है।

आपके लिये अंतरजाल पर सादर प्रस्तुत है, आपके विचार/सुझाव/टिप्पणियाँ हमारा मार्गदर्शन करेंगी।


जीतेन्द्र चौहान मुकेश कुमार तिवारी
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"स्कूल स्मारक जैसा है" - सुरेन्द्र कांकरिया


सम्पूर्ण अबोधता- तमाम इंद्रियों की अबोधता से बोधता की ओर बढ़ती मात्रा का पहला पड़ाव है बचपन। इस पड़ाव के एक ओर ईश्वरीय स्वरूप जैसा निश्छल अबोध लोथड़ा तो दूसरी ओर ईश्वर की तमाम गुत्थियों को खोलने को तत्पर मानव। इनके बीच में नहीं, ईश्वरीय स्वरूप के सर्वाधिक नजदीक व मानव फितरतों से सर्वाधिक दूर बचपन की त्रासदी यह है कि वह दिव्यता से मानवता की ओर सफर करने को अभिशप्त है।
इस पड़ाव पर हर कोई अपनी याददाश्त की पोटली में कुछ रखता जरूर है। यह कुछ रखा हुआ ही सब कुछ चूक जाने के बाद कोहिनूरी आभा वाली धरोहर बन जाता है।
झाबुआ जिले का बचपन कुपोषण की कोख को चूसता हुआ पैदा होता है। हड्डियों के ढाँचे में बीमारियों को लेकर जब वह यहाँ आता है तो सोमवार को उसका जन्म लेना उसे सोमला, मंगलवार को अगर जन्म लिया तो मंगलिया, बुधवार का बुधिया जैसा कुछ बना देता है ।
मुर्गों के, कुत्तों के, गाय के, बच्चों के साथ उसका भी बचपन पग-पग बढ़ता जाता है। गिरना, जलना, काटने आदि के घाव उसे बचपन में ही मिल जाते हैं। इस जिले में बचपन उसे कलम ढखाली खिलाता है। इसे खेलते-खेलते ही वह वृक्ष पर चढ़ना सीख जाता है। जब वृक्ष पर चढ़ता है तो उसे कच्चे आम, कच्चे जाम, जामुन, महुआ का स्वाद भी पता चल जाता है। मुर्गों, कुत्तों के बच्चों के साथ खेलते-खेलते वह जानवरों की हूबहू आवाज निकालना सीख जाता है।
स्वाद व स्वभाव उसे नैसर्गिक रूप से मिलते हैं। यही बचपन उसे मवेशी से जोड़ देता है। मवेशी चराते-चराते उसे वनस्पति का ज्ञान हो जाता है। मवेशी के गुण-दोष, उपयोग से वह अवगत होता है।
स्कूल उसके लिए दूर से देखने वाला स्मारक जैसा कुछ होता है। यही बचपन उसे श्रम का मार्ग बताता है। यही बचपन उसे प्राकृतिक सरलता से साक्षात्कार करवाता है। बचपन उसे घर से निकालकर उस जंगल, खेत, चरागाह तक ले जाता है, जहाँ वह अपने बचपन का उत्सर्जन कर एक वनवासी, एक श्रमिक, एक कृषक बनकर बाहर आता है। आदिवासी के बचपन में यादों की बस यही धरोहर रहती है कि उसने अपना बचपन पिता का फटा शर्ट या बहन के कपड़े पहनकर वन सम्पदा के बीच गुजारा था।
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जीवन ज्योति मेडिकल स्टोर्स,
थांदला, झाबुआ म.प्र.

सुरेन्द्रजी वरिष्ठ आंचलिक पत्रकार हैं, दो पुरस्कार मिल चुके हैं।