मंगलवार, 28 जुलाई 2009

मेरी पहली कविता - बालकवि बैरागी

हिन्दी के ख्यातनाम साहित्यकार और एक यशस्वी राजनैतिक जीवन को जीने वाले सहृदय गीतकार, कवि जिनकी ओज भरी वाणी ने मंच से लगाकर देश की संसद को शोभित किया श्री बालकवि बैरागी जी ने "गुंजन" को अपने प्रवेशांक पर शुभकामनायें देते हुये अपने संस्मरण हमारे साथ बांटे जो आपके समक्ष प्रस्तुत है :-
" मेरी पहली कविता "
यह घटना उस समय की है जब मैं कक्षा चौथी का विद्यार्थ था। उम्र मेरी नौ वर्ष थी। आजादी आई नहीं थी। दूसरा विश्व युद्ध चl रहा था। मैं मूलत: मनासा नगर का निवासी हूँ, जो उस समय पुरानी होल्कर रियासत का एक चहल पहल भरा कस्बाई गाँव था। गरोठ हमारा जिला मुख्यालय था और इन्दौर राजधानी थी। मनासा में सिर्फ सातवीं तक पढ़ाई होती थी। सातवीं की परीक्षा देने हमें 280 किलोमीटर दूर इन्दौर जाना पड़ता था। स्कूलों में तब प्रार्थना, ड्रिल, खेलकूद और बागवानी की पीरियड अनिवार्य होते थे। लेकिन साथ ही हमारे स्कूल में हर माह एक भाषण प्रतियोगिता भी होती थी।
यह बात सन्‌ 1940 की है । मेरे कक्षा अध्यापक श्री भैरवलाल चतुर्वेदी थे। उनका स्वभाव तीखा और मनोबल मजबूत था। रंग साँवला, वेश धोती-कुरता और स्कूल आते तो ललाट पर कुंकुंम का टीका लगा होता था। हल्की नुकीली मूँछें और सफाचट दाड़ी उनका विशेष श्रृंगार था। मूलत: मेवाड़ (राजस्थान) निवासी होने के कारण वे हिन्दी, मालवी, मेवाड़ी और संस्कृत का उपयोग धड़ल्ले से करते थे। कोई भी हेडमास्टर हो, सही बात पर भिड़ने से नहीं डरते थे।
एक बार भाषण प्रतियोगिता का विषय आया-"व्यायाम'। चौथी कक्षा की तरफ से चतुर्वेदीजी ने मुझे प्रतियोगी बना दिया। साथ ही इस विषय के बारे में काफी समझाइश भी दी। यूँ मेरा जन्म नाम नन्दरामदास बैरागी है। ईश्वर और माता-पिता का दिया सुर बचपन से मेरे पास है। पिताजी के साथ उनके चिकारे (छोटी सारंगी) पर गाता रहता था। मुझे "व्यायाम' की तुक "नन्दराम' से जुड़ती नजर आई। मैंने गुनगुनाया- ""भाई सभी करो व्यायाम""। इसी तरह की कुछ पंक्तियाँ बनाई और अंत में अपने नाम की "छाप' वाली पंक्ति जोड़ी- ""कसरत ऐसा अनुपम गुण है-कहता है नन्दराम-भाई सभी करो व्यायाम''। इन पंक्तियों को गा-गा कर याद कर लिया और जब हिन्दी अध्यापक पं.श्री रामनाथ उपाध्याय को सुनाया तो वे भाव-विभोर हो गए। उन्होंने प्रमाण पत्र दिया- ""यह कविता है। खूब जियो और ऐसा करते रहो।''
अब प्रतियोगिता का दिन आया। हेडमास्टर श्री साकुरिकर महोदय अध्यक्षता कर रहे थे। प्रत्येक प्रतियोगी का नाम चिट निकालकर पुकारा जाता था। चार-पाँच प्रतियोगियों के बाद मेरा नाम आया। मैंने अच्छे सुर में अपनी छंदबद्ध कविता "भाई सभी करो व्‌यायाम'' सुनाना शुरू कर दी। हर पंक्ति पर सभागार हर्षित होकर तालियाँ बजाता रहा और मैं अपनी ही धुन में गाता रहा। मैं अपना स्थान ग्रहण करता तब तक सभागार हर्ष उल्लास और रोमांच से भर चुका था। चतुर्वेदीजी ने मुझे उठाकर हवा में उछाला और कंधों तक उठा लिया।
जब प्रतियोगिता पूरी हुई तो न्यायाधीशों ने अपना निर्णय अध्यक्ष महोदय को सौंप दिया। सन्नाटे के बीच निर्णय घोषित हुआ- हमारी कक्षा हार चुकी थी। कक्षा 6ठी जीत गई। इधर चतुर्वेदीजी साक्षात परशुराम बन कर न्यायाधीशों से सामने अड़ गए। वे भयंकर क्रोध में थे और उनका यही एक मत था कि उनकी कक्षा ही विजेता है। कुछ शांति होने पर बताया गया कि यह भाषण प्रतियोगिता थी, जबकि चौथी कक्षा के प्रतियोगी नन्दरामदास ने कविता पढ़ी है- भाषण नहीं दिया है। कुछ तनाव कम हुआ। इधर अध्यक्षजी खड़े हुए और घोषणा की - "कक्षा चौथी को विशेष प्रतिभा पुरस्कार मैं स्कूल की तरफ से देता हूँ। नन्दरामदास को पाँच रूपए की पुस्तकें सरकार की तरफ से दी जाएंगी। '' सभागार फिर तालियों से गूंज उठा। चतुर्वेदीजी पुलकित थे और रामनाथजी आँखें पोंछ रहे थे। यह सरस्वती माता के घुँघरूओं की मेरे जीवन में पहली सार्वजनिक झँकार थी।
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धापूधाम, 165 डॉ।पुखराज वर्मा मार्ग,, नीमच
मो.: 9425106136

4 टिप्‍पणियां:

Dipti ने कहा…

बालकवि बैरागी को बहुत पहले से जानती हूँ। उनका ये संस्मरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

प्रेरक संस्मरण...हम से बांटने के लिए आपका आभार...
नीरज

ज्योति सिंह ने कहा…

aap aaye mere blog pe iske liye tahe dil se aabhari hoon .bahut hi rochak ,ye sansmaran hame apne anubhav ka gyan dete hai aur jeevan ke kai pahlu se jodte hai .ati uttam .

Urmi ने कहा…

बहुत बढ़िया लगा! लिखते रहिये!