गुरुवार, 6 अगस्त 2009

सविता बजाज का एक संस्मरण - साढ़े एक बजा है

पत्रिका गुंजन के प्रवेशांक में तृतीय प्रविष्टी के रूप में फिल्म और टी. व्ही. जगत की मशहूर अभिनेत्री सुश्री सविता बजाज ने अपने बालपन के संस्मरण को हमारे साथ बांटा है। यह संस्मरण आपके लिये प्रस्तुत है, आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का इंतजार रहेगा।

सविनय

जीतेन्द्र चौहान मुकेश कुमार तिवारी
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साढ़े एक बजा है - सविता बजाज

बात उन दिनों की है जब मैं छोटी थी। करीब सात-आठ साल की। हम लोग पुरानी दिल्ली में रहते थे। हमारा परिवार आर्य समाजी था। लिहाजा हर शनिवार घर में हवन होता था । जिसे मेरी माँ घर के अन्य सदस्यों और अपनी सहेलियों के साथ करती थी। हमारे घर में एक बड़ी सी घड़ी थी जो दीवार पर टंगी थी। घर के हर सदस्य के पास समय की कमी थी। घर में सबसे छोटी होने के नाते घर के छोटे-मोटे काम मुझे ही निपटाने पड़ते। सुबह होते ही सबकी नजरें दीवार पर टंगी घड़ी पर टिक सी जाती । उस जमाने में फ्रिज नहीं थे। माँ आवाज लगाती- "सवि, जल्दी जा, बरफ ला दे, तेरे बाबूजी के लिए लस्सी बनानी है, दस मिनट से ज्‌यादा समय मत लेना, समझी।' बाबूजी की आवाज कानों में रस घोलती- "सवि बेटा, जरा मेरे लिए शेव का पानी गरम तो कर दे। उस जमाने में न गैस थी और न ही हीटर, चूल्हा सुलगाना पड़ता था। जिसके धुएँ में मेरा बुरा हाल हो जाता था। मेरा बड़ा भाई चिल्लाता, सवि, तू अभी तक माझा नहीं लाई, पतंग कैसे उड़ाएंगे। और मैं पतंग उड़ाने की लालसा में तितली बन उड़ जाती। बाजार से माझा लाने। कभी-कभी सोचती, दीवार पर लगी घड़ी पर नजरें गड़ाने से तो अच्छा है मेरी कलाई पर भी एक सुन्दर सी, छोटी सी घड़ी बंधी हो। माँ को अपने मन की इच्छा बताई तो वह बोली सवि, तू अभी बहुत छोटी है। तुझे घड़ी देखना तो आता नहीं, बड़ी हो जा,ले दूंगी। लेकिन मेरी जिद के सामने माँ की एक न चली।
एक दिन माँ ने मुझे एक बहुत ही सुन्दर सुनहरी घड़ी मेरे हाथ की कलाई पर बांध मुझे चूम लिया, बोली- हेप्पी बर्थ डे। और मैं खुशी से रो दी।
एक शनिवार घर में बहुत बड़ी पार्टी थी। माँ ने मुझे पुकारा, सवि बेटा, जरा टाइम तो बता। मैं चहकी- साढ़े एक बजा है माँ। मेहमान हंस के लोट पोट हो रहे थे और माँ चुप थी। मुझे तो बस रोना ही आ गया क्योंकि सब मुझ पर हंस रहे थे।
पार्ट खत्म हुई तो माँ ने मुझे पुचकारा- कहा था न, तुझे अभी टाइम देखना नहीं आता, ला घड़ी मुझे दे दे। जब इसकी समझ आ जाएगी ले लेना। सचमुच माँ ने वह घड़ी मुझे तब लौटाई जब समय पढ़ने का ज्ञान हुआ। बस तभी से माँ की बात गांठ बांध ली - किसी चीज का कुछ उपयोग नहीं जब तक उसका ज्ञान नहीं ।माँ को गुजरे बरसों हो गए, लेकिन उसकी कही बात में आज तक नहीं भूली। तभी तो हमारे बड़े-बूढ़े कहते थे न ज्ञान बिना जग सूना।
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सविताजी दिल्ली से हैं, एन. एस. डी. भी गई हैं। लंबे समय से मुंबई में है। पत्रकारिता, फिल्मकारिता, टी. व्ही. सीरियलों में वे अब भी ढलती उम्र में सक्रिय हैं, पूर्ववत।

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