रविवार, 20 सितंबर 2009

श्री निर्मल शर्मा का :- सनेह का मारग नहीं -"रचना प्रक्रिया"

हिन्दी के स्थापित साहित्यकार श्री निर्मल शर्मा साहब ने पत्रिका-गुंजन के प्रवेशांक में अपनी रचना प्रक्रिया को हमारे साथ बाँटा जो आपके लिये प्रस्तुत है। आपकी प्रतिक्रियायें हमारा मार्गदर्शन करती हैं।

सविनय,


जीतेन्द्र चौहान मुकेश कुमार तिवारी
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मैं कुछ भी नहीं लिखता। जो भी लिखता हूँ उसे लंबे समय तक मुल्तवी किये रहता हूँ। उसे आप मेरी "रचना प्रक्रिया' का हिस्सा भी समझ सकते हैं। क्योंकि जब तक विचार परिपक्व हो कर मूर्तन रूप ग्रहण करने के लिये स्वयं को तैयार न कर ले "रचना प्रक्रिया' प्रारंभ ही नहीं हो सकती। छवि, घटना, विचार, आलोड़न, विलोड़न से ही निकलता (या कह लूँ- निथरता) रचना का नवनीत। जब इस नवनीत को लेकर मैं रचना बनाना शुरू करता हूँ, तब मेरे समक्ष उसके "सामाजिक दाय' का प्रश्न उपस्थित होता है।

क्योंकि मेरा यह दृढ़ मत है कि कोई भी रचना व्यर्थ अथवा निरर्थक नहीं होती। हर रचना का कोई हेतु अवश्य ही होता है। वह अहेतुक नहीं होती उसका कोई न कोई कन्सर्न अवश्य होता है। पाठक क्षमा करें, हम रघुनाथ गाथा भी अपनी खुशी के लिये नहीं लिखते! इसे और विस्तार से समझाने के लिये मैं ग.मा. मुक्तिबोध के चर्चित व मशहूर आर्टिकल - तीसरा क्षण का अवलंब लेना चाहूंगा। वहाँ पहले क्षण में रचनाकार के समक्ष कोई वाकिया अथवा घटना होती है जो उसके रचनाकार मस्तिष्क को "हॉण्ट' करती रहती है।

घटनाएँ अथवा वाकिये तो अनेक होते हैं। होते रहते हैं, पर हर घटना रचना की प्रेरणा नहीं बनती। हर वाकिया मस्तिष्क को उद्वेलित नहीं करता। और इसका निर्णय होता है दूसरे क्षण में जाकर । यहाँ कसौटी विचार होता हैऔर घटना में रचना बन पाने का सामर्थ्य है अथवा नहीं। है तो कितनी है....। आदि धाराएँ टकराती रहती हैं। तब कहीं जा कर पहला क्षण, उसमें घटित घटना का निर्णय हो पाता है।
तब तीसरे क्षण "रचना' की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। ताना बाना बुना जाने लगता है। बिम्ब, प्रतीक, भाषा, विचार और अन्तत: सामाजिक निष्कर्ष पर उसकी सार्थकता व निरर्थकता के मान मूल्य तय होते हैं। मुक्तिबोध रचना व रचनाकार की "राजनीति' से भी गुरेज नहीं करते । वे कहते हैं- तय करो कि किस ओर हो तुम। पार्टनर, तुम्हें अपनी पॉलिटिक्स तो तय करना होगी।

और यहीं, इसी बिन्दु पर पहुँच कर रचना का सामाजिक सरोकार व दाय के मुद्दे तय होते हैं। हर रचना का अपना "पक्ष' होता है। कोई रचना "निष्पक्ष' नहीं होती । निष्पक्षता का दावा सबसे अधिक भ्रामक है। वह व्यक्ति को कहीं का नहीं छोड़ता। और यहीं से रचना में प्रतिबद्धता की कसौटी निर्णायक बन जाती है। यह विवेक बलवान हो उठता है कि पीड़ित मानवता के पक्ष में विजय के अंतिम क्षणों तक संघर्ष रत रहना ही- रचना व रचनाकार का मुख्य सरोकार है। मेरे लिये तो "रचना प्रक्रिया' के मायने यही हैं।
माँ मेरी प्रिय पात्र रही है। स्थायी कमजोरी। सदैव एक शोषित पीड़ित, दमित पक्ष। वैसे भी नारी ही इस वर्ग का सबसे सशक्त सिम्बल है। महत्वपूर्ण प्रतीक। "पिता' मुझे इतना प्रभावित व प्रेरित कभी नहीं कर पाए, बल्कि उनसे मैंने सदैव ही किनारा किया है। आतंक व पीड़ा से लबरेज वे सदैव मुझमें डर तथा नफरत भरते हैं।

ये दो प्रतीक मैंने अपने रचना संसार से डिस्कशन्स के लिये अपनी रचना प्रक्रिया पर रोशनी डालने के लिये आपके समक्ष उठाए हैं। मेरी सबसे लंबी, चर्चित व मशहूर कविता थी- "माँ के लिये' । व्यक्तिगत होने के उपरान्त यह प्रतीक कविता में सार्वजनीन होकर उभरा है। सर्वग्राह्य भी वह रहा और पाठकों ने उसे हाथों हाथ व सर आँखों पर लिया। कविता खूब प्रसिद्ध हुई। उसके खूब अनुवाद भी हुए।
इसके उलट "पिता को भद्दी गालियाँ बकते हुए' कविता के साथ पाठकों ने कोई रियायत नहीं बख्शी व उसे सीधे साधे उठाकर "अकविता' के खाते में पटक दिया। हालाँकि उसके बिम्ब प्रतीक व भाषा आदि ने भी पाठकों को ऐसा करने के लिये उकसाया। यद्यपि अपनी परिणति में भी कविता कुछ ऐसा ही प्रभाव छोड़ती भी है।

मैंने बहुविध लिखा है। विभिन्न विषयों पर कई-कई तरह से लिखा है। किंतु यह विविधता कन्टेन्ट को लेकर भी रही तो फॉर्म को लेकर भी। वस्तु और रूप की ये अर्थ छवियाँ मेरी कविताओं को अपने समकालीनों के साथ भी खड़ा करती है व उनसे अलग भी पहचान बनाती है। मैंने कभी किसी विषय पर लिखने से परहेज नहीं किया। धर्म, राजनीति, विज्ञान और संघर्षा के साथ ही प्रेम तथा वात्सल्य को भी अपनी कविताओं में लिया उनके कन्सर्न को कभी ओझल व विस्मृत नहीं होने दिया।
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डी-10, योजना क्र। 98
(2, संवाद नगर के सामने)
नवलखा, इन्दौर 452 001

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