जीतेन्द्र चौहान मुकेश कुमार तिवारी
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चिड़िया आई, चिड़िया आई
चिड़िया आई, चिड़िया आई
अम्बुआ की डाली बौराई
डाल-डाल पर बैठी चिड़िया
रंग बिरंगी प्यारी चिड़िया
पानी में करती किल्लोल
सपनों की चादर ले आई
चिड़िया आई, चिड़िया आई
फसल कट गई खेत तप रहे
खलिहानों में ढपली के स्वर
लाल रंग पर काली कलंगी
कुमकुमी ऋतु गदराई
चिड़िया आई, चिड़िया आई
कोयल कुहुक रही वृक्षों पर
बन पाखी उड़ते अंबर में
आल्हा गाए उल्लसित मन
धरती ने फिर ली अंगड़ाई
चिड़िया आई, चिड़िया आई
इमली खिरनी शहतूत लदे
टहनियों पर यौवन गदराया
छाती फूली हर किसान की
फसलों की दुनिया हरियाई
चिड़िया आई, चिड़िया आई
अम्बुआ की डाली बौराई।
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हरी कोंपलों का गीत
झरते
पीले पत्तों में ही
कोमल / हरी
कोंपलों का गीत
छुपा होता है।
पंछी शायद
इसी आशा में
पतझर को कोसते नहीं
उसे गुजर जाने देते हैं
आकाश
परिंदों से भर जाता है
और शामें
सुहानी हो उठती हैं ।
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कुहासा
पथरा गया
समंदर की
नीली आँखों में तैरता हिमखंड
अँधेरा
और गहरा हो गया।
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वर्षा
पर्वत शिखरों पर
कुलांचे भरते
मृग छौने
रीती नदी में
गिर कर पिघल जाते हैं
भर जाती है
रीती नदी की गोद ।
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पहचान
धरती में
बहुत गहरे तक
जा समाया जल
हमारी
थाह नाप रहा है
कि कहीं हमारी
काठी महज
काठी ही तो
नहीं रह गई है।
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शिनाख्त
एक दूसरे के भीतर
धँस कर
रहते हुए भी
संदेह हमारा
स्वभाव बन गया है
और हम
खोजते रहते हैं
कोई सुराग।
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खेल
नीला पड़ गया
विषधर से खेलने वाला सपेरा
रात्रि
निरापद नहीं है ।
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संधान
उठो धनुर्धर
अब न कुरूक्षेत्र प्रकट है
न कौरव और
न ही शकुनि
तुम्हें
स्वयं ही प्राप्त करना होगा
अपना हस्तिनापुर ।
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2 टिप्पणियां:
इतनी अच्छी रचना पढ़वाने के लिए धन्यवाद
बहुत खूबसूरत तरीके से चित्रण किया गया है
आप को सपरिवार दीपावली मंगलमय एवं शुभ हो!
मैं आपके -शारीरिक स्वास्थ्य तथा खुशहाली की कामना करता हूँ
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